Thursday, July 31, 2008

))) तनहाई (((

बीते दिनों की बात जब याद आती है,
बेइमान अश्क आखों से गिर जाती है.

मेहफिल में तन्हा हुँ मै समझ जाता हुं,
पूछते हें लोग तो चुप रह जाता हुं.

उलझ के बातों मै दुर निकल जाता हुं,
रुकते ही कदम खुद को तन्हा पाता हुँ.

मायूस होके वापस में घर आ जाता हुँ,
लीपट के बिश्तर से फिर सो जाता हुँ.

सजा के कुछ सपने में बिस्तर में जाता हुँ,
खुलते ही आखं एक तस्वीर पाता हुँ.

तुम येँहीँ हो खुद को शम्झाता रहता हुँ,
खोलते ही दरवाजा खाली मकान पाता हुँ.

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3 comments:

मोहन वशिष्‍ठ said...

मायूस होके वापस में घर आ जाता हुँ,
लीपट के बिश्तर से फिर सो जाता हुँ.
वाह जी वाह बहुत ही अच्‍छी कविता है जनाब मजा आ गया पढकर बधाई हो आपको

Vivekk singh Chauhan said...

bhut badhiya. jari rhe.
aap apna word verification hata le taki humko tipani dene me aasani ho.

jasvir saurana said...

सजा के कुछ सपने में बिस्तर में जाता हुँ,
खुलते ही आखं एक तस्वीर पाता हुँ.
bhut sundar. kya baat hai.