कभि सोचे नथे दुरी जालीम बन जायेगी,
कुछ पलकी खुशी के बद्ले अश्क दे जायेगी.
कागज ये बोल उठ्ती हें जब हम उश्शे बतें करते हें,
छोडे मेहेबुब कु दुर देखो ये हम से दील लगाते हें.
देखो हीम्मत कीताब की वो भी रुठ जाते हें,
कहते हें पागल हे ये कीयुं हम से नेंन मीलाते हें.
मख्मली शेज पे रात क्या गुजारुँ खाबों में जो तुम आजाती हो,
दीलाके याद वो पहेली रात आखों से निन्द चुरा ले जाती हो.
सज सवर के कुछ दुर तुम्हारे साथ नीकल जाता हुं,
देखता हुं मुड के जब मुशकुरा के रुक जाता हुं.
खयालों की दुनीया मे हुं जब समझ जाता हुं,
फीर अपनी मन्जील के वोर तन्हा नीकल जाता हुं.
ना मे तन्हा हुं ना साथ मेरे यार हें,
किस से करुं मे दील की बात,
वो तो सात समन्दर पार हें.
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Wednesday, July 30, 2008
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