Monday, April 7, 2008

((( महबत )))

मिलाहे ईक अनमोल रतन,
दील मे छुपाये रखता हुं,
नाम ऊशका सोफी हे,
दुनीयी से ये कहता हुँ.

दिल्ल मे हे प्यार ऊनका,
और आखं नशे मे टर हे,
कहते हें आशीक हे सोफीका,
दुनीयाका ईशे क्या डर हे.

बने क्या डुरी दिवार हमारा,
दुशमन क्या बने जमाना,
मिलन हे इकरोज मनजील जीश्का,
फिर दुरी से ऊसे क्या घबराना.

जी जायेगें महबत के साहारे,
अब गम की परवा किशी,
लेले चाहे जान जमाना,
अब मरनेकी डर किशे.

मुमकिन हे ईमतेहान लेगी जमाना,
फिरभी ये जजबात रखता हुं,
देगीं वो शाथ जीन्देगी भर,
दील मे ये येतबार रखता हुं.

No comments: